दोस्तो भारत की पवित्र नगरी काशी (बनारस) को हिंदू धर्म में बेहद महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यहां स्थित मणि कर्णिका घाट के विषय में कहा जाता है कि यहां जलाया गया शव सीधे मोक्ष को प्राप्त होता है, उसकी आत्मा को जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है। यही वजह है कि अधिकांश लोग यही चाहते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद, उनका दाह-संस्कार बनारस के मणि कर्णिका घाट पर ही हो। उसी बनारस में मणिकर्णिका घाट पर वैश्याएं लोगों की मौत पर नाचती है. यानि की एक ओर जहां लोग अपनों के मरने का दुख मनाते है, वही दूसरी ओर वैश्याओं के घुंघरु रुकने का नाम नहीं लेते. आखिर क्या है इसके पीछे का रहस्य, काशी के इस श्मशान घाट पर वैश्याएं क्यों नाचती हैं? इस रहस्यमय सवाल का जबाब हम इस वीडियो के माध्यम से जानेंगे, इसलिए आर्टिकल के माध्यम से जान सकते हैं. यह कथा बड़ी ही रोचक और रहस्यपूर्ण है, इसलिए आर्टिकल को अंत तक पूरा पढ़ें.
दोस्तो, व्यक्ति का दुनिया से चले जाना भले ही उसके लिए मोक्ष की बात हो, लेकिन यह उसके निकट जनों के लिए दुख की घड़ी होती है। लेकिन इस दुख के बीच साल का एक समय ऐसा भी आता है, जब मणि कर्णिका पर महोत्सव होता है, खूब नाच-गाना होता है, और नाचता भी कोई और नहीं बल्कि समाज का वो अंग है, जिसे हम बिल्कुल हीन और निम्न दृष्टि से देखते हैं। बहुत से लोग भारत की इस प्राचीन परंपरा से अनभिज्ञ हैं ,लेकिन ये सच है कि सदियों से बनारस के इस श्मशान घाट पर, चैत्र माह में आने वाले नवरात्रों की सप्तमी की रात पैरों में घुंघरू बांधी हुई वेश्याओं का जमावड़ा लगता है। एक तरफ जलती चिता के शोले आसमान में उड़ते हैं, तो दूसरी ओर घुंघरू और तबले की आवाज पर नाचती वेश्याएं दिखाई देती हैं। मौत के मातम के बीच श्मशान महोत्सव का रंग बदल देते हैं तबले की आवाज, घुंघरुओं का संगीत, और मदमस्त नाचती नगरवधुएं। जो व्यक्ति इस प्रथा से अनजान होगा उसके लिए यह मंजर बेहद हैरानी भरा हो सकता है, कि रात के समय श्मशान भूमि पर इस जश्न का क्या औचित्य है?
मणिकर्णिका घाट बनारस:-
मान्य़ता है कि इस दिन काशी के राजा भगवान शिव अदृश्य रुप से इस पूरे महोत्सव में शामिल होते है. और तब इस घाट में वैश्याएं बेहिचक नृत्य करती है. यानी की एक तरफ चिता की लपटे उठ रही होती है. तो वहीं दूसरी ओर वैश्याओं के घुंघरुओं की झनकार बज रही होती है. मर्णि कर्णिका घाट पर लोगो के रोने और तबले की थाप का यहां अनोखा संगम सभी को हैरान कर देता है। भगवान भोलेनाथ को समर्पित, काशी को मोक्ष की नगरी कहा जाता है। यही वजह है कि वेश्याएं भी यहां नाच-नाचकर भोलेनाथ से यह प्रार्थना करती हैं कि, उन्हें इस तुच्छ जीवन से मुक्ति मिले, और अगले जन्म में वे भी समाज में सिर उठाकर जी सकें।
मणि कर्णिका घाट, जिसे महा श्मशान भी कहा जाता है, पर चैत्र के सातवें नवरात्रि पर होने वाले इस महोत्सव के पीछे एक कथा भी है। कहा जाता है कि पंद्रहवीं शताब्दी में अकबर के नवरत्नों में से एक, राजा मानसिंह ने काशी के देव भगवान शिव के मंदिर की मरम्मत करवाई। इस शुभ अवसर पर राजा मानसिंह बेहतरीन कार्यक्रम का आयोजन करना चाहते थे, लेकिन कोई भी कलाकार यहां आने के लिए तैयार नहीं हुआ। श्मशान घाट पर होने वाले इस महोत्सव में थिरकने के लिए नगर वधुएं तैयार हो गईं। इस दिन के बाद धीरे-धीरे कर यह परंपरा सी बन गई, और तब से लेकर अब तक चैत्र के सातवें नवरात्रि की रात हर साल यहां श्मशान महोत्सव मनाया जाता है। यह महोत्सव इतना लोकप्रिय हो गया कि बड़े-बड़े महानगरों से वेश्याएं और बार बालाएं यहां आने लगीं। वे इस उम्मीद से यहां आती और नृत्य साधना करती हैं कि, बाबा भोलेनाथ उन्हें इस नारकीय जिन्दगी से मुक्ति प्रदान करेंगे, और अगले जन्म में वे भी समाज की मुख्यधारा में शामिल हो पाएंगी। आज भी वेश्याएं इस महोत्सव में शामिल होने को अपना भाग्य समझती हैं।
मणि कर्णिका घाट, बनारस का एक ऐसा श्मशान घाट है, जहां हर समय चिताएं जलती ही रहती हैं। ऐसा कहा जाता है कि, जिस दिन इस घाट पर चिता नहीं जली वह बनारस के लिए प्रलय का दिन होगा। मणि कर्णिका घाट की महिमा यहीं समाप्त नहीं होती। इस स्थान से जुड़ी अनेक पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं. जिनमें से एक शक्ति स्वरूपा पार्वती के कान की बाली का गिरना है। कहा जाता है जब पिता से आक्रोशित होकर आदि शक्ति सती हुईं, तब उनके कान की बाली इस स्थान पर गिर गई थी। जिसके बाद इस श्मशान का नाम मणि कर्णिका घाट पड़ा।
इसके अलावा एक और कहानी हमारे पौराणिक इतिहास में दर्ज है, जो मणिकर्णिका घाट की इसी महिमा को उजागर करती है। माना जाता है कि जब शिव, विनाशक बनकर सृष्टि का विनाश कर रहे थे, तब बनारस नगरी को बचाने के लिए विष्णु ने शिव को शांत करने के लिए तप प्रारंभ किया। भगवान शिव और पार्वती जब इस स्थान पर आए, तब शिव ने अपने चक्र से गंगा नदी के किनारे एक कुंड का निर्माण किया। जब शिव इस कुंड में स्नान करने लगे तब उनके कान की बाली यहां गिर गई. जिसके बाद इस कुंड का नाम मणि कर्णिका पड़ गया। इस कुंड के किनारे स्थित घाट को मणि कर्णिका कहा जाने लगा।
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