दोस्तो, भीष्म पितामह महाभारत की कथा के एक ऐसे नायक हैं, जो आरंभ से अंत तक इसमें रहे। भीष्म पितामह ने जीवनभर अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया, और हस्तिनापुर को सुरक्षित हाथों में देखकर ही अपने प्राणों का त्याग किया। उन्हें देवव्रत व गंगापुत्र आदि नाम से भी जाना जाता है। भीष्म पितामह का नाम सुनते ही हमें एक पराक्रमी योद्धा का सशक्त चेहरा याद आता है। एक ऐसा पितृभक्त पुत्र, जिसने अपना पूरा जीवन एक प्रतिज्ञा को निभाने में निकाल दिया। एक ऐसे निष्काम कर्मयोगी, जिसने अपने पिता के लिए अपने जीवन, अपनी इच्छाओं और सुखों का त्याग कर दिया था। इतना सबकुछ होने के बाद भी सवाल उठता है कि, भीष्म पितामह को बाणों की शय्या पर क्यों लेटना पड़ा ? भीष्म पितामह ने ऐसा कौन सा पाप किया था, जिसके कारण उन्हें इतने कष्ट झेलने पड़े? इस रहस्यमय सवाल का जबाब हम इस आर्टिकल के माध्यम से जानेंगे, इसलिए आर्टिकल को अंत तक पूरा पढ़ें.
भीष्म पितामह ने कौन सा पाप किया था?
दोस्तो, गंगापुत्र भीष्म पिछले जन्म में द्यौ नामक वसु थे। एक बार पृथु आदि वसु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे। वहां वशिष्ठ ऋषि का आश्रम भी था। एक वसु पत्नी की दृष्टि ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में बंधी नन्दिनी नामक गाय पर पड़ गई। यह गाय समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाली थी। उसने उसे अपने पति द्यौ नामक वसु को दिखाया, तथा कहा कि वह यह गाय अपनी सखियों के लिए चाहती है। आप इसे हर लें। पत्नी की बात मानकर द्यौ ने अपने भाइयों के साथ उस गाय को हर लिया। वसु को उस समय इस बात का ध्यान भी नहीं रहा कि, वशिष्ठ ऋषि बड़े तपस्वी हैं और वे हमें श्राप भी दे सकते हैं। जब महर्षि वशिष्ठ अपने आश्रम आए तो उन्होंने दिव्य दृष्टि से सारी बातें जान लीं। वसुओं के इस कार्य से क्रोधित होकर ऋषि ने उन्हें मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। वसुओं को जब यह बात पता चली तो वे ऋषि वशिष्ठ से क्षमा मांगने आए, तब ऋषि ने कहा कि बाकी सभी वसुओं को तो शीघ्र ही मनुष्य योनि से मुक्ति मिल जाएगी, लेकिन इस द्यौ नामक वसु को अपने कर्म भोगने के लिए बहुत दिनों तक पृथ्वीलोक में रहना पड़ेगा। यह पृथ्वी पर संतानहीन रहेगा। महाभारत कथा के अनुसार गंगापुत्र भीष्म वह द्यौ नामक वसु थे। श्राप के प्रभाव से वे लंबे समय तक पृथ्वी पर रहे, तथा अंत में अपनी इच्छामृत्यु से ही अपने प्राण त्यागे।
भीष्म पितामह को बाणों की शय्या पर क्यों लेटना पड़ा?
दोस्तो, कथा के अनुशार, जब भीष्म पितामह महाभारत के युद्ध में घायल होकर शर शैय्या पर लेटे हुए थे, उस समय श्री कृष्ण पितामह से मिलने के लिए पहुंचे. पितामह ने श्री कृष्ण से कहा, हे केशव, मुझे अपने पिछले सौ जन्म इस तरह से याद है, जैसे सौ दिन की बातें हों, फिर मैंने इन जन्मों में ऐसा कौन सा पाप कर्म किया था, जिसका मुझे यह दंड मिल रहा है. इस पर श्री कृष्ण बोले की, पितामह आपकों सौ जन्म तो याद है, मगर पिछला 101 वा जन्म याद नहीं है. उस जन्म में आप राजा थे, और आप पैदल पैदल अपनी सेना के आगे आगे चल रहे थे, कि अचानक आप की जूती पर एक सांप चढ़ गया, और आपने झटक कर उस सांप को रास्ते के किनारे फेंक दिया. वह सांप कांटेदार झाड़ियों पर जाकर गिर गया, और काफी दिनों के बाद उसका शरीर कांटों से बीधं जाने के कारण तड़प तड़प कर उसकी मौत हुई थीं. आपके अनजाने में किया गया यह पाप कर्म आप को भुगतना पड़ रहा है।
पितामह बोले, हे केशव, मेरे इस पाप कर्म का दंड मुझे अगले जन्म में मिलना चाहिए था, यह दंड मुझे सौ जन्मों के बाद क्यों मिला।
श्री कृष्ण बोले, हे पितामह, उस घटना के बाद आप के जितने भी जन्म हुए, उन सभी जन्मों में आपके पुण्य का पलड़ा भारी था, और पाप का पलड़ा कमजोर था, इसलिए आपको इस पाप कर्म का दंड नहीं मिला. परंतु इस जन्म में आपके पुण्य का पलड़ा कमजोर था, और पाप का पलड़ा भारी था. पांडवों को लाक्षागृह में मारने की कोशिश की गई आप मौन रहे, हस्तिनापुर राज्य का बंटवारा स्वयं आप की स्वीकृति से हुआ, द्रोपदी चीर हरण के समय आप मौन रहे, जुए में शकुनि और दुर्योधन की बेईमानी को आप चुपचाप देखते रहे, पांडवों को 12 साल का बनवास और 1 साल का अज्ञातवास मिला, आप मौन रहे, जब मैं शांति दूत बनकर हस्तिनापुर में शांति का प्रस्ताव लेकर गया था, दुर्योधन ने मुझे बंदी बनाने की चेष्टा की परंतु आप फिर भी मौन रहे, दुर्योधन के पाप कर्मों को जानते हुए भी आप पाप,अधर्म, और असत्य के पक्ष में लड़ते रहे, यह समस्त आपके पाप कर्म थे. क्योंकि आपने इन समस्त पाप कर्मों में अपनी मौन स्वीकृति दी थी. आप विरोध कर सकते थे, परन्तु आपने विरोध नहीं किया, और साथ में आपके पिछले 101 वा जन्म का पाप भी जुड़ गया है, और जिस रूप से उस सांप की मृत्यु हुई थी, उसी तरह से आप की भी मृत्यु होगी।